सीएए के खिलाफ विधानसभाओं के प्रस्ताव
राज्यों के द्वारा असहमति की अभिव्यक्ति के जरिए संवैधानिक मूल्यों में निहित संघीय भावना की रक्षा की कोशिश हो रही है
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वैलेरियन राॅड्रिग्स
जब यह लिखा जा रहा है तब तक चार राज्यों केरल, पंजाब, राजस्थान और पश्चिम बंगाल ने नागरिकता संशोधन कानून, 2019 के खिलाफ प्रस्ताव पारित किए हैं और केंद्र सरकार से इसे वापस लेने को कहा है। राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर के प्रति भी इन राज्यों ने अपनी अनिच्छा दिखाई है। ऐसी उम्मीद है कि कुछ और राज्य विरोध में उतरेंगे। राज्यों ने विरोध के जो बिंदु उठाए हैं, वे उल्लेखनीय हैं। केरल का मानना है कि सीएए समानता, स्वतंत्रता और धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों की अवहेलना करता है। पंजाब ने इसे राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा बताया है और माना है कि इससे घुसपैठ की घटनाएं बढ़ेंगी। राजस्थान का मानना है कि इस कानून में भेदभाव निहित है। पश्चिम बंगाल का मानना है कि इस कानून की वजह से देश भर में अशांति फैली है। इन सबके बावजूद केंद्र सरकार सीएए पर आगे बढ़ रही है और नियम बनाने का काम कर रही है। विरोध को देखते हुए यह भी माना जा रहा है कि सरकार इसे एनआरसी और एनपीआर को अलग कर सकती है और सिर्फ नागरिकता के नाम पर आंकड़े एकत्रित कर सकती है।
सीएए के अंदर किसे नागरिकता मिलेगी और किसे निकाला जाएगा, इसके जलिए छह संप्रदायों हिंदू, बौद्ध, सिख, जैन, ईसाई और पारसी से संबंधित पहचान स्थापित करनी होगी। इसमें मुस्लिम शामिल नहीं हैं। इसका इस्तेमाल 20121 में पश्चिम बंगाल में होने वाले विधानसभा चुनाव में धु्रवीकरण के लिए किया जा सकता है। असम में भी विभाजन पैदा करने की कोशिश हो सकती है। हिंदू राष्ट्र के नाम पर सारी भावनात्मक ताकत के ध्रुवीकरण की कोशिश सीएए के जरिए हो सकती है।
भारत में अलग-अलग समुदायों के आधार पर नागरिकता में भेद नहीं किया जाता। लेकिन सीएए के बाद यह स्थिति बदल जाएगी। इसमें समुदाय आधार हो जाएगा। सामाजिक जुड़ाव इससे प्रभावित हो सकते हैं। इसलिए राज्यों ने जो प्रस्ताव पारित किए हैं, उनका अपना महत्व है।
1980 के दशक में भारत में एक पार्टी का प्रभुत्व खत्म होने के बाद भारत में संघीय संबंधों में एक नए ढंग की बराबरी पैदा हुई है। इससे राज्यों और केंद्र के बीच के संबंध नए ढंग से परिभाषित हुए। पंचायती राज संस्थाओं और शहरी स्थानीय निकायों को नई ताकत और जिम्मेदारियां दी गईं। अनुसूची-6 के अंदर आने वाले राज्यों में जिला परिषद बने। छोटे आकार के नए राज्य बने। उत्तर प्रदेश बहुत बड़े राज्य का बंटवारा हुआ। प्रशासन को जवाबदेह और नागरिकों को शासन से जोड़ने की कोशिश हुई।
2014 से प्रधानमंत्री के सहयोगात्मक संघवाद के वादे के उपलट काम हो रहा है। खास तौर पर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के दूसरे कार्यकाल में। कई राज्यों में भारतीय जनता पार्टी की सफलता की वजह से इसके प्रति समर्पण का एक माहौल कायम हुआ है। संविधान के औपचारिक प्रावधान तो वैसे ही हैं लेकिन इन्हें केंद्र सरकार की इच्छा के हिसाब से लागू किया जा रहा है। इसलिए सीएए के खिलाफ राज्यों के प्रस्ताव को सिर्फ उनके विरोध के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए बल्कि संघीय भावना को बचाने की एक प्रार्थना के तौर पर भी देखना चाहिए।
सीएए का कुछ राज्यों पर सामाजिक और राजनीतिक असर पड़ना तय है। लेकिन इस कानून के बनने में इन राज्यों की कोई भूमिका नहीं रही। इसमें भी एक बात यह भी है कि अगर इन राज्यों में बिल्कुल अलग विचारधारा वाली पार्टी की सरकार हो तो फिर अपने मूल सिद्धांतों के उलट किसी कानून को बगैर किसी विरोध के ये कैसे स्वीकार कर लेंगे? यह भी ध्यान रखने की जरूरत है कि इस कानून पर पर्याप्त चर्चा तक नहीं हुई हैं। संसद की स्थायी समिति के पास इसे भेजने के प्रस्ताव को खारिज कर दिया गया। हालांकि, नागरिकता केंद्रीय सूची में है लेकिन सीएए संविधान के बुनियादी सिद्धांतों को प्रभावित करेगा। ऐसे में यह कहा जाएगा कि संविधान की सुरक्षा के लिए यह जरूरी था कि सीएए के खिलाफ राज्यों के सामने अपनी असहमति जताने के अलावा कोई और विकल्प नहीं था।