राफेल मामले पर पर्दा डालने की कोशिश
राफेल मामले में सामने आ रही जानकारियों से प्रधानमंत्री कार्यालय की भूमिका और सरकार के दावों की जांच की जरूरत बढ़ती हुई दिखती है
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2019 के लोकसभा चुनावों के पहले राफेल मामले ने विपक्षी पार्टियों को गोलबंद करने का काम किया है. इस मामले में केंद्र सरकार और उद्योगपति अनिल अंबानी पर अनियमितता से संबंधित सवाल उठ रहे हैं. वहीं दूसरी तरफ सरकार के प्रवक्ता इसके बचाव में हर तरह के तर्क दे रहे हैं. हालांकि, हाल में जो बातें सामने आई हैं, उनसे सरकार पर भ्रष्टाचार और अनियमितता के और आरोप लग रहे हैं.
अप्रैल, 2015 में अंबानी की रिलायंस डिफेंस को राफेल सौदे में हिस्सेदारी मिली थी. भारतीय वायु सेना ने यह सौदा लड़ाकू विमान खरीदने के लिए फ्रांस की डसाॅल्ट एविएशन के साथ किया था. अनिल अंबानी की कंपनी का रजिस्ट्रेशन इस सौदे के दो हफ्ते पहले ही हुआ था. जिस तरह से यह सौदा हुआ था, उससे लोग हैरान रह गए थे. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने कार्यकाल के पहले साल में ही यूरोपीय देशों के दौरों के क्रम में फ्रांस की यात्रा पर गए थे. उस यात्रा के बारे में उस समय के विदेश सचिव ने यह कहा था कि इस तरह की यात्राओं में नेतृत्व स्तर की वार्ता होती है और रक्षा सौदों की बारीकियों पर बेहद गहराई से चर्चा नहीं होती. इसके बावजूद यह सौदा उस दौरे में हुआ.
पूर्ववर्ती सरकार ने 2007 में डसाॅल्ट कंपनी के साथ एक सौदा किया था. इसके तहत पूरी तरह से तैयार 18 लड़ाकू विमान खरीदे जाने थे. इसके अतिरिक्त 108 लड़ाकू विमान हिंदुस्तान एयरोनाॅटिक्स लिमिटेड के साथ मिलकर बनाए जाने थे. इस तरह के सौदों में बहुत जटिलताएं होती हैं. इसलिए कीमतों को लेकर विस्तृत चर्चा की प्रक्रिया में यह सौदा लटक गया. इसमें तकनीक हस्तांतरण की बात भी थी. क्योंकि जितने विमान बने-बनाए आ रहे थे, उससे छह गुना अधिक भारत में बनने थे.
विदेश सचिव द्वारा प्रधानमंत्री के फ्रांस दौरे पर रक्षा सौदे की संभावना को खारिज किए जाने के दो दिनों के अंदर भारत के प्रधानमंत्री ने फ्रांस से 36 लड़ाकू विमान खरीदने के सौदे की घोषणा कर दी. पूरी तरह से तैयार इन विमानों के लिए यह सौदा दोनों देशों की सरकारों के बीच हुआ. कहा गया कि पहले से जिस सौदे को लेकर बातचीत चल रही है, उससे बेहतर शर्तों पर नया सौदा हो रहा है.
नए सौदे के तहत बने-बनाए विमान खरीदने की बात तय हुई. 2007 में 126 विमानों का सौदा 42,000 करोड़ रुपये में हुआ था. इसका मतलब यह हुआ कि एक विमान की कीमत 350 करोड़ रुपये से भी कम थी. अप्रैल, 2015 में उस समय के रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर ने पुराने सौदे के तहत एक विमान की कीमत 715 करोड़ रुपये बताई थी. नए सौदे के बारे में सरकार यह कहती आई है कि इसके शर्तों के तहत वह विमान की कीमत सार्वजनिक नहीं कर सकती. लेकिन नवंबर, 2016 में रक्षा राज्य मंत्री सुभाष भामरे ने लोकसभा में कह दिया कि एक विमान की कीमत तकरीबन 670 करोड़ रुपये है. लेकिन डसाॅल्ट और रिलायंस डिफेंस ने फरवरी, 2017 में एक प्रेस विज्ञप्ति में यह बताया कि एक विमान की कीमत तकरीबन 1,660 करोड़ रुपये होगी.
नए सौदे के तहत अब तक एक विमान भी भारत नहीं आया. अब इस बात को लेकर संदेह पैदा हो रहा है कि समय से ये विमान आ भी पाएंगे या नहीं. इस बीच कई एजेंसियों ने इस मामले पर पर्दा डालने की कोशिश की है. अगस्त, 2018 में नागरिक अधिकारों के अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने दो पूर्व केंद्रीय मंत्रियों यशवंत सिन्हा और अरुण शौरी के साथ मिलकर राफेल सौदे पर एक तथ्य पत्र जारी किया. इसमें क्रमबद्ध तरीके से जानकारियों को पिरोकर यह बताने की कोशिश की गई कि सौदे में कई खामियां हैं.
इन लोगों ने उच्चतम न्यायालय में एक याचिका दायर करके इस मामले में सीबीआई जांच की मांग की. इसके बाद सीबीआई में शीर्ष अधिकारियों को इधर से उधर करने का खेल चला. उच्चतम न्यायालय के एक वरिष्ठ जज के सेवानिवृत्ति के बाद पद लेने की संभावना को लेकर भी सवाल उठे. उच्चतम न्यायालय ने इस मामले की सीबीआई जांच की मांग को खारिज कर दिया. इस फैसले में सीएजी की उस रिपोर्ट का हवाला दिया गया जिस पर काम शुरू ही नहीं हुआ था.
जब सीएजी की रिपोर्ट अंततः आई तो इसने राफेल सौदे का समर्थन किया. इसमें कीमत को सही ठहराया गया. लेकिन मीडिया में रक्षा मंत्रालय के दस्तावेजों के हवाले से यह खबर आई कि पुराने सौदे के मुकाबले विमानों की कीमतों में 41 फीसदी बढ़ोतरी हुई. मंत्रालय अधिकारियों ने जो दस्तावेज तैयार किया है, उसमें यह भी कहा गया है कि बातचीत में प्रधानमंत्री कार्यालय की सक्रियता से यह प्रक्रिया गंभीर रूप से कमजोर पड़ी.
सरकार ने इस मुद्दे पर बार-बार राष्ट्रीय सुरक्षा का हवाला दिया है. राजनीतिक विरोधियों पर हमले के लिए ‘राष्ट्र-विरोधी गतिविधियों’ का आरोप मढ़ा जा रहा है. लेकिन भ्रष्टाचार के आरोप खत्म होने का नाम नहीं ले रहे हैं.