छात्रों की मौत: एक राष्ट्रीय नुकसान
वंचित और अल्पसंख्यक तबकों के युवा छात्रों की आत्महत्या राष्ट्रीय नाकामी को दर्शाती है
The translations of EPW Editorials have been made possible by a generous grant from the H T Parekh Foundation, Mumbai. The translations of English-language Editorials into other languages spoken in India is an attempt to engage with a wider, more diverse audience. In case of any discrepancy in the translation, the English-language original will prevail.
खुदकुशी करने वाले छात्रों की संख्या बढ़ती ही जा रही है। खुदकुशी के अलग—अलग मसले अलग ढंग के हैं लेकिन इसमें दो बातें समान हैं। इसमें पहली बात यह है कि इनमें से अधिकांश छात्र वंचित और अल्पसंख्यक तबकों से हैं। वहीं दूसरी बात यह है कि इनकी शिकायतों और इन पर पड़ रहे दबावों पर संस्थान ध्यान नहीं देते। इनमें से कुछ नामों को सभी जानते हैं। ये नाम हैं: अनिल मीणा, रोहित वेमुला, सेंथिल कुमार, पायल तड़वी, नजीब अहमद और अब 9 नवंबर को खुदकुशी करने वाली फातिमा लतिफ। सरकार के बयानों के मुताबिक 2014 से 2016 के बीच 26,500 छात्रों ने पूरे देश में खुदकुशी की है। ये सभी अपने पीछे परिवार और मित्रों को दुख में छोड़ गए हैं। इनमें से बहुत सारे छात्र ऐसे रहे हैं जो परीक्षाओं में अधिक प्रतिशत हासिल करने की होड़ का दबाव नहीं झेल पाए।
इन परिस्थितियों के लिए एक संस्थान के तौर पर मीडिया की नाकामी का उल्लेख जरूरी है। उदाहरण के तौर पर जनवरी, 2016 में तमिलनाडु में होम्योपैथी की पढ़ाई कर रही तीन दलित महिला छात्रों की खुदकुशी के मामले को लिया जा सकता है। इन तीनों ने न सिर्फ कॉलेज के चेयरमैन को बल्कि राज्य के अधिकारियों को भी अपनी प्रताड़ना के बारे में पत्र लिखा था। लेकिन जब कुछ नहीं हुआ तो गरीब परिवार की ये तीनों बच्चियां आत्महत्या की राह चुनने को मजबूर हो गईं।
मीडिया इन मामलों में सुसाइड नोट को तो प्रकाशित करता है लेकिन इस स्थिति में इन्हें मौत के बाद भी धोखा देने का काम होता है। कुछ दिनों और हफ्तों तक ये नोट सोशल मीडिया पर चलते रहते हैं। बाद में सब सामान्य हो जाता है। कुछ अपवादों को छोड़कर इन मामलों में चल रही पुलिस जांच का फॉलोअप नहीं किया जाता। ताकि कसूरवारों को सजा मिल सके।
इन मामलों में मीडिया से भी अधिक जवाबदेही उच्च शैक्षणिक संस्थानों के अधिकारियों की है। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय रैंकिंग रखने वाले ये संस्थान अपने छात्रों की पीड़ा को नजरंदाज करते हैं। अधिकांश दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यक छात्र इन संस्थानों में अपरिचित माहौल के दबाव को नहीं झेल पाते। आम तौर पर ये छात्र गैर—अंग्रेजी माध्यम वाले स्कूलों से आते हैं। इनके लिए अंग्रेजी माध्यम में हो रही पढ़ाई के साथ तालमेल बैठाना आसान नहीं होता। इनकी मदद के लिए कोई प्रभावी व्यवस्था नहीं दिखती। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के छात्रों के साथ भेदभाव वाले बर्ताव की बात भी कुछ शीर्ष मेडिकल कॉलेजों से आई है। लेकिन यह रहस्य है कि ऐसे रिपोर्ट पर क्या कदम उठाए जाते हैं ताकि स्थितियां सुधर सकें। इन छात्रों को हॉस्टल से लेकर कक्षाओं और कैंटिन तक में भेदभाव का शिकार होना पड़ता है। इन मामलों पर शायद ही ध्यान दिया जाता है।
फातिमा लतिफ आईआईटी—मद्रास में मानविकी विभाग में अध्ययन कर रही थीं। उनके परिजनों का आरोप है कि कुछ शिक्षक उनकी बेटी को परेशान कर रहे थे। इस वजह से फातिमा ने खुदकुशी की राह चुनी। मीडिया रिपोर्ट में यह बात सामने आई कि पिछले एक साल में इस संस्थान में पांच छात्रों ने खुदकुशी की।
संस्थान के अधिकारियों ने बताया कि उनके यहां ऐसे छात्रों की मदद के लिए काउंसलिंग तंत्र और मेंटर फैकल्टी के साथ वेलनेस केंद्र की व्यवस्था है। मीडिया में यह बात आई कि केंद्र सरकार उच्च संस्थानों से काउंसलिंग और वेलनेस सेंटर स्थापित करने के लिए कहने वाली है। लेकिन अब जरूरत इन कदमों से आगे जाने की है। यह समझने की जरूरत है कि जो संस्थान एडवांस शिक्षा के लिए बने हैं और जिनका काम तार्किक और वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देने के अलावा, वे क्यों नाकाम हो रहे हैं। इन संस्थानों के ये युवा छात्र जो अपने समाज में आदर्श हो सकते हैं, अपनी जान लेने को बाध्य हो जा रहे हैं। जबकि इन छात्रों को दाखिला कई तरह के संघर्षों के बाद मिलता है।
इस तरह के संवेदनशील मसले पर सार्वजनिक संवाद की जगह 'योग्यता' और 'आरक्षण' पर ही बात चलती रहती है। वंचित तबके और अल्पसंख्यकों की नुमाइंदगी करने वाली राजनीतिक पार्टियां भी इस मामले में विमर्श को आगे नहीं बढ़ा रही हैं और इस मामले में दीर्घकालिक कदमों की मांग नहीं कर रही हैं।
इन प्रखर युवा प्रतिभाओं की जिंदगी खत्म होना एक राष्ट्रीय नुकसान है। आखिर कब इस तरह के नुकसान को गंभीर माना जाएगा और इस समस्या के समाधान के लिए तत्काल कदम उठाए जाएंगे?