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लोकतंत्र में असली और नकली

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The translations of EPW Editorials have been made possible by a generous grant from the H T Parekh Foundation, Mumbai. The translations of English-language Editorials into other languages spoken in India is an attempt to engage with a wider, more diverse audience. In case of any discrepancy in the translation, the English-language original will prevail.

 

एक मजबूत लोकतंत्र में फर्जी खबरों की मौजूदगी विरोधाभासी दिखती है। ऐसे लोकतंत्र में सच्चाई चाहे जितनी भी असहज करने वाली क्यों न हो, इसका जिक्र नेताओं के भाषणों में सामाजिक माध्यमों में दिखता है। सच्चाई का प्रसार पारदर्शी ढंग से होना चाहिए। चाहे मीडिया के जरिए हो या संवादी लोकतंत्र में किसी और माध्यम से हो। मीडिया की यह जिम्मेदारी बनती है कि वह सही ढंग से चीजों को प्रस्तुक करे। सामाजिक स्तर पर लोगों को जागृत करने में मीडिया की अहम भूमिका होती है। समाज में लोकतांत्रिक विमर्श खड़ा करने में इसकी और महत्वपूर्ण भूमिका होती है। इस संदर्भ में देखा जाए तो फर्जी खबरें लोकतांत्रिक आदर्शों के प्रतिकूल हैं। इसके बावजूद हम इनके बारे में न सिर्फ पश्चिमी देशों में सुनते हैं बल्कि भारत में भी इनकी चर्चा सुनाई देती है। फर्जी खबरें लोकतंत्र को प्रदूषित करने का काम कर रही हैं।

फर्जी खबरें सिर्फ गलत सूचनाओं के प्रसार तक सीमित नहीं हैं। चुनावों के दौरान फर्जी वादे करना और नाकामियों को कामयाबी के तौर पर पेश करना भी फर्जी खबरों के दायरे में आता है। विपक्षी ताकतों द्वारा की जाने वाली शिकायतें अक्सर ऐसे मामलों में सही होते दिखती हैं।

सामान्य तौर पर यह माना जाता है कि जो भी औपचारिक सांस्थानिक सत्ता हासिल करना चाहते हैं, वे फर्जी खबरों का इस्तेमाल करते हैं। लेकिन प्रमुख सवाल यह है कि क्यों इन नेताओं को सत्ता हासिल करने या सत्ता बनाए रखने के लिए फर्जी खबरों की जरूरत पड़ती है?

इसका सरल उत्तर अमेरिका और भारत में हुए चुनावों के जरिए खोजा जा सकता है। सत्ता के खेल में नेता अपने विपक्षियों पर हावी होने के लिए फर्जी खबरों का इस्तेमाल करते हैं। जो पार्टी सत्ता में आती है, उसे फर्जी खबरों की जरूरत बनी रहती है। ताकि उसकी सांस्थानिक सत्ता बनी रहे। जो लोग सत्ता में होते हैं, वे यह नहीं बताना चाहते हैं कि जीवन की गुणवत्ता में गिरावट आ रही है या फिर सामाजिक तनाव बढ़ रहा है। उन्हें इस बात का डर होता है कि अगर इस तरह की नकारात्मक बातें लोगों के बीच गईं तो उनका समर्थन कमजोर पड़ सकता है। जमीनी स्तर पर फर्जी खबरों का लक्ष्य यह होता है कि विपक्षी आवाजों का दबा दिया जाए।

हालांकि, गहराई से इस मसले के विश्लेषण से पता चलता है कि फर्जी खबरों के निशाने पर सबसे अधिक मतदाता रहते हैं। ऐसा इसलिए कि चुनावों में उनके समर्थन को निश्चित मानकर नहीं चला जा सकता है। मतदाता किसी पार्टी के पक्ष से उसके विपक्ष में भी जा सकते हैं। इसलिए उन्हें फर्जी सूचनाओं के जरिए अपने पक्ष में रखने की कोशिश की जाती है। फर्जी खबरों के जरिए लोगों को वास्तविक स्थिति से दूर रखने का काम होता हे। फर्जी खबरों के जरिए ये पार्टियां सत्ता की अपनी भूख को बनाए रखते हुए इसे पूरा करने का काम करती हैं।

इन फर्जी खबरों के प्रसार में औजार के तौर पर इस्तेमाल हो रहे लोग असली और नकली का फर्क करने की क्षमता खो बैठते हैं। फर्जी खबरों के प्रसार की सफलता पर यह निर्भर करता है कि सरकार की वास्तविक नाकामी को कैसे छिपाया जाए। यह स्वतंत्र पर सोचने की क्षमता को कुंद करता है। क्योंकि अगर लोग स्वतंत्र तौर पर निर्णय लेंगे तो इससे सत्ताधारी दल की आंतरिक डिजाइन प्रभावित हो सकती है।

फर्जी खबरों का लोकतंत्र पर क्या असर पड़ता है? फर्जी खबरों की मौजूदगी लोकतंत्र के गहरे संकट को बताता है। अगर सत्ताधारी दल फर्जी खबरों का अधिक इस्तेमाल करके जनता को भ्रम में रखने का काम करती है तो इससे न सिर्फ लोकतंत्र के लिए संकट पैदा होता है बल्कि इससे और गहरी व्यवस्थागत संकट की स्थिति पैदा होती है। ऐसे संकट का संकेत सामाजिक विभेद और आर्थिक मंदी के जरिए मिल रहा है। यह भी सच है कि ऐसा कोई भी कदम जो दूसरों की अज्ञानता और लाचारी का फायदा उठाने के लिए उठाया जाता है वह अंततः नाकाम ही होता है।

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