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जलवायु की पुकार

जलवायु संरक्षण के लिए बेहतर उदाहरण पेश करने वाले व्यक्तिगत  कार्यों की जगह सूचनाओं पर आधारित ठोस कदमों की अधिक जरूरत है

 

The translations of EPW Editorials have been made possible by a generous grant from the H T Parekh Foundation, Mumbai. The translations of English-language Editorials into other languages spoken in India is an attempt to engage with a wider, more diverse audience. In case of any discrepancy in the translation, the English-language original will prevail.

 

20 से 27 सितंबर, 2019 के बीच चले जलवायु परिवर्तन हड़ताल से पुरानी बात ध्यान में आती है। इसमें कहा गया है कि हमने धरती अपने पूर्वजों से नहीं हासिल की है बल्कि अपने बच्चों से उधार लिया है। इस बात से जलवायु परिवर्तन के प्रति युवाओं की चिंता को समझा जा सकता हे। लेकिन इसमें अलग-अलग पीढ़ियों की जिम्मेदारी की बात भी शामिल है। वह भी किसी एक देश की नहीं बल्कि अलग-अलग देशों की। दोनों ही स्थितियों में सामूहिक और संयुक्त प्रयासों की राह में सबसे बड़ी बाधा वे देश ही बन रहे हैं जो ऐतिहासिक तौर पर इस समस्या के लिए जिम्मेदार रहे हैं। जिन देशों ने कम उत्सर्जन किए हैं, वे देश खुद को अधिक दबाव में महसूस कर रहे हैं।
भारत के अलग-अलग शहरों में युवा जलवायु संरक्षण को लेकर सड़कों पर उतरे। लेकिन यह सवाल भी उठ रहा है कि क्या इस विरोध से सरकार के जलवायु शासन पर कोई फर्क पड़ेगा जो इस पर ध्यान ही नहीं देती। पिछले दस सालों में जलवायु परिवर्तन से संबंधित याचिकाओं में मानवाधिकार कानूनों को आधार बनाया गया है। लेकिन इसकी सफलता के मूल्यांकन की जरूरत है।
उदाहरण के तौर पर सुरक्षित जलवायु से निकलने वाले ‘सह-लाभ’ की बात को ही लें। भारत के संदर्भ में यह बात कम लागू होती है। भारत में कोयले की जगह सौर किरणों से या हवा से बिजली बनाने से कार्बन डायआॅक्साइड का उत्सर्जन कम होगा लेकिन यह संदेहास्पद है कि क्या इससे रोजगारों का सृजन भी होगा। इंटीग्रेटेड रिसर्च ऐंड एक्शन फाॅर डेवलपमेंट के 2016 के एक शोध पत्र में यह अनुमान लगाया गया है कि 2014-15 के उत्पादन स्तर पर कोल इंडिया की उत्पादकता प्रति कर्मचारी घंटे 0.75 टन थी। इस तरह से देखें तो नवीकरणीय स्रोतों की जगह इसमें अधिक रोजगार पैदा करने की संभावना है। अमेरिका के कोयला क्षेत्र से भी अधिक रोजगार भारत का यह क्षेत्र पैदा कर रहा है। तो क्या इसका मतलब यह निकाला जाए कि रोजगार सृजन के लिए जलवायु संरक्षण से समझौता कर लिया जाए?
विकास को क्षमताओं की दृष्टि से देखने का जो तरीका है उसमें स्वच्छ पर्यावरण और रोजगार दोनों को बेहतर जीवन के लिए जरूरी कहा जा सकता है। इसलिए दोनों को अलग करके नहीं देखा जा सकता। लेकिन यहां प्राथमिकता तय करने की बात आती है। अगर भविष्य की जगह वर्तमान को तरजीह दें तो अपने से जुड़ी दिक्कतों के बावजूद रोजगार की बात पहले आती है। इस मोड़ पर सरकार पर लोगों में निवेश करने के लिए दबाव बनाने की जरूरत है ताकि लोग स्वच्छ पर्यावरण के साथ अपने दूसरे अधिकारों को हासिल करने में सक्षम हो सकें।
जलवायु संरक्षण की समस्या हर देश के लिए अलग है इसलिए एक ही तरीका पूरी दुनिया में नहीं चल सकता। इस लिहाज से देखें तो भारत में हुई हड़ताल ने अवसर गंवा दिया। क्योंकि इसमें जलवायु शासन के आयामों को दरकिनार किया गया। इसमें जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन के नियमों के संबंधित समान लेकिन क्षमताओं के हिसाब से भिन्न जिम्मेदारी के सीबीडीआर-आरसी से संबंधित आयामों को दरकिनार किया गया। जब उत्सर्जन सोखने की क्षमता एक देश से दूसरे देश को दिए जाने की व्यवस्था हो तो आईएनडीसी के तहत देशों ने जिस योगदान की बात की है, उसके परीक्षण की भी जरूरत है।
वैश्विक स्तर पर हरित गैसों के उत्सर्जन में 1991 से 2012 के बीच भारत का योगदान शून्य फीसदी था। इस लिहाज से भारत द्वारा 2030 तक उत्सर्जन में 30 से 35 फीसदी कटौती की बात महत्वकांक्षी लगती है। विरोध करने वालों को इस लक्ष्य के पीछे की वजहों के बारे में सवाल उठाना चाहिए था। वह भी भारत की राष्ट्रीय आय में आ रही कमी के संदर्भ में। सवाल इस पर भी उठना चाहिए था कि पेरिस समझौते के बाद से वित्त और तकनीक के लिए किए गए वादों को नहीं निभाया जा रहा है। उत्सर्जन में कमी को लेकर गैरबराबरी वाली जिम्मेदारियों पर बात होनी चाहिए थी।
नई पीढ़ी में पर्यावरण को लेकर जागरूकता पैदा करने की जरूरत है। लेकिन ऐसा करते वक्त इस बात को याद रखने की जरूरत है कि इसके संरक्षण और इस्तेमाल के लिए व्यापक सोच की जरूरत है। वैश्विक स्तर पर एकजुटता दिखाने के लिए कोई विरोध-प्रदर्शन करने में रोमांच तो है लेकिन इससे शासन के मूल संकटों का समाधान नहीं होता।

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