मजदूरी का मजाक
राष्ट्रीय स्तर पर अभी जो न्यूनतम मजदूरी है, वह इस पूरी अवधारणा के लक्ष्यों को नाकाम बना रही है
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श्रम मंत्री द्वारा 178 रुपये की न्यूनतम मजदूरी की घोषणा की गई है। इस घोषणा में न सिर्फ इसे तय करने के पैमानों की अनदेखी की गई है बल्कि आधिकारिक प्रक्रियाओं का भी पालन नहीं किया गया। 2015 में इसे 160 रुपये तय किया गया था। जून, 2017 में इसमें 10 फीसदी बढ़ोतरी करके इसे 176 रुपये कर दिया गया। लेकिन इस बार महंगाई को ध्यान में रखे बगैर जो बढ़ोतरी हुई है, उसे अगर वास्तविक तौर पर देखें तो यह एक तरह की कमी ही है। ऐसे में फिर न्यूनतम मजदूरी का क्या मतलब रह जाता है?
न्यूनतम मजदूरी और सामूहिक मोलभाव व्यवस्था से श्रम बाजार प्रभावित होता है। इसलिए न्यूनतम मजदूरी की अवधारणा इसलिए आई कि इससे श्रमिकों को गरीबी से निकलने में मदद मिलती और गैरबराबरी घटती है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि न्यूनतम मजदूरी तय करते वक्त मजदूर और उसके परिवार की जरूरतों के साथ-साथ महंगाई का भी ध्यान रखा जाता है। यह सामूहिक मोलभाव से अलग है जिसका इस्तेमाल संगठित क्षेत्र में इस स्तर से अधिक मजदूरी तय करने के लिए होता है। हालिया आर्थिक समीक्षा के मुताबिक, ‘प्रभावी न्यूनतम मजदूरी की नीति से समाज के निचले तबके के लोगों को फायदा होता है और इससे पूरी मांग को बढ़ाने, मध्य वर्ग को मजबूत बनाए रखने और सतत तथा समावेशी विकास को बनाए रखने में मदद मिलती है।’
हालांकि, महंगाई के प्रभावों का ध्यान रखे बगैर 178 रुपये की जो न्यूनतम मजदूरी तय की गई है, उससे श्रमिकों की क्रय क्षमता प्रभावित होगी। यह न सिर्फ श्रमिकों के कई कांफ्रेंसों के पारित प्रस्तावों की अनदेखी नहीं है बल्कि 1992 में आए उच्चतम न्यायालय के दिशानिर्देशों की भी अनदेखी है। न्यूनतम मजदूरी से संबंधित घोषणा बगैर न्यूनतम मजदूरी सलाहकार बोर्ड के बैठक के की गई। केंद्र सरकार यह तय इसलिए करती है ताकि राज्य सरकारें अब इससे कम मजदूरी न दे सकें। लेकिन महीने में 26 काम के दिन हों तो इस आधार पर एक श्रमिक को पूरी महीने मजदूरी करने पर सिर्फ 4,628 रुपये मिलेंगे।
जीवन बसर करने में होने वाले खर्च, श्रम उत्पादका के स्तर और आर्थिक विकास जैसे पैमानों का इस्तेमाल न्यूनतम मजदूरी तय करने में होता है। साथ ही श्रमिकों के परिवारों की जरूरतों का भी ध्यान रखा जाता है। लेकिन 178 रुपये न्यूनतम मजदूरी की मंत्री के द्वारा की गई घोषणा में इन सबकी अनदेखी की गई। सरकार ने खुद ही जो विशेषज्ञ समिति गठित की थी, उसकी सिफारिशों को नहीं माना। इसने 375 से 447 रुपये के बीच की मजदूरी की सिफारिश की थी। इस आधार पर मासिक आमदनी 9,750 रुपये से 11,622 रुपये के बीच होती। यह तब था जब समिति ने प्रतिदिन की कैलोरी जरूरतों को 2,700 से घटाकर 2,400 कर दिया था और जरूरतों को 2012 के पैमाने पर तय किया था। लेकिन मौजूदा न्यूनतम मजदूरी तो 2016 में सातवें वेतन आयोग द्वारा घोषित पैमानों का तकरीबन एक चौथाई ही है।
जिस देश में 93 फीसदी श्रमिक असंगठित क्षेत्र में हों, वहां जितना कम न्यूनतम मजदूरी तय किया गया है, उससे न तो मजदूरी का स्तर सुधरेगा और न ही वंचित समूहों के परिवारों की स्थिति में कोई सुधार होगा। तो फिर इतना कम न्यूनतम मजदूरी तय करने का क्या मतलब रह जाता है? 29 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में इससे अधिक न्यूनतम मजदूरी पहले से है। इसका मतलब यह हुआ कि केंद्र की घोषणा एक तरह से राज्यों को भी मजदूरी बढ़ाने की घोषणा करने से रोकेगी।
एक ऐसे समय में जब नव उदारवादी नीतियों ने कृषि की कमर तोड़ दी है और रोजगार की तलाश में लोग ग्रामीण क्षेत्रों से शहरी क्षेत्रों में पलायन करने को मजबूर हैं तो यह न्यूनतम मजदूरी स्थितियों को और खराब करने का ही काम करेगा। इसके जरिए एक बार फिर उन श्रमिकों पर निशाना साधा गया है जिन्हें पहले भी श्रम सुधारों के नाम पर निशाने पर लिया जाता रहा है। जिन अधिकारों को मजदूरों ने संघर्ष करके हासिल किया था, उन्हें वापस लेना और उन पर नियोक्ताओं के हितों को तरजीह देकर केंद्र सरकार ने यह संकेत दे दिया है कि वह गरीबपरस्त न्यूनतम मजदूरी की नीति का पालन नहीं करती। मनमाने ढंग से जो न्यूनतम मजदूरी केंद्र सरकार ने तय की है, उससे मजदूरी की असमानता और आय की गैरबराबरी और बढ़ेगी। साथ ही इसका नकारात्मक असर श्रमिकों के जीवन स्तर पर भी पड़ेगा।