बजट में विचार और आदर्श
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2019 के राष्ट्रीय बजट पर प्रमुख अर्थशास्त्रियों और टिप्पणीकारों ने काफी कुछ कहा। बजट की व्यावहारिक बातों की अनदेखी करना आसान नहीं होता है। इस बार भी वर्षों पुरानी परंपराओं का निर्वहन करते हुए विरोधी हितों को साधने की कोशिश बजट में की गई है। हालांकि, सरकार यह दावा करती है कि यह गरीबपरस्त बजट है। बजट आवंटन को देखने पर पता चलता है कि अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और मध्य वर्ग जैसे सामाजिक समूहों के तुष्टिकरण की कोशिश की गई है। बजट से यह भी पता चलता है कि गरीबों का वर्ग राजनीतिक तौर पर प्रभावी वर्ग नहीं है। इसलिए इसे बांटना जरूरी है। एक तरफ जहां दो करोड़ रुपये से अधिक कमाने वाले अमीर लोगों पर सरकार ने कर बढ़ा दिया है तो दूसरी तरफ निवेश के लिए काॅरपोरेट जगत को लुभाने की भी कोशिश की गई है।
इस तरह के विविध प्रस्तावों और योजनाओं की घोषणा उन लोगों को थोड़ा हैरान करने वाला है जो मानते हैं कि ऐसी घोषणाएं वही पार्टी करती है जिसके लिए संसद में बहुमत का संकट होता है। माना जाता है कि ऐसी पार्टियां बाहरी दबावों में अधिक आती है और सभी राजनीतिक और सामाजिक वर्गों को साथ लेकर चलने की कोशिश करती हैं। इस वजह से बजट में सामाजिक प्रगतिशीलता का चरित्र दिखता है। लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं होता कि पूर्ण बहुमत वाली पार्टी बड़े बदलावों वाला बजट पेश करेगी। क्योंकि पार्टियां अपने वोट बैंक को अपने साथ बनाए रखना चाहती हैं। खास तौर पर कुछ सामाजिक समूहों के मतदाताओं को।
इसी तरह से इन पार्टियों की कोशिश यह भी होती है कि निजी क्षेत्र को मिलाकर रखा जाए ताकि निवेश आता रहे। उदारवादी आदर्शों से उपजी इस व्यावहारिक सोच में उचित अवसरों के लिए आपस में प्रतिस्पर्धा दिखती है। इस प्रतिस्पर्धा से बराबरी की परतें तैयार होती हैं लेकिन समय के साथ यह समूह के अंदर और समूहों के बीच गैरबराबरी को बढ़ाने का ही काम करती है। व्यापक बदलाव लाने के लिए सरकार की सोच उन उपायों को करने की होनी चाहिए जिससे लोग बुरी परिस्थितियों से निकलकर बेहतर परिस्थितियों की ओर बढ़ सकें। भारतीय अर्थव्यवस्था ऐसा करने में नाकाम रही है। यही वजह है कि भारत में 93 फीसदी रोजगार अनौपचारिक क्षेत्र में है। सरकार और बाजार मिलकर जिस तरह का प्रतिस्पर्धी माहौल तैयार कर रहे हैं, उसमें सिविल सेवाओं, व्यावसायिक पाठ्यक्रमों और कम मात्रा में उपलब्ध रोजगार के अवसरों पर दबाव बढ़ता जा रहा है। जाहिर तौर पर इस तक भी बहुत कम लोगों की ही पहुंच है। प्रतिस्पर्धा के गड़बड़ आदर्शों की वजह से ही आरक्षण की मांग कई ओर से उठ रही है।
इसमें संदेह नहीं होना चाहिए कि बाजार कई स्तर पर असमानता पैदा करता है। लेकिन एक मजबूत सरकार इन असमानताओं को अपने स्तर पर दूर करने में मुश्किलों का सामना करती है। सरकारें उन असमानताओं को दूर करने की कोशिश कर रही हैं जिसे बाजार ने पैदा किया है। अब सवाल उठता है कि बाजार द्वारा पैदा की गई गैरबराबरी को सरकार कैसे दूर करे? इसमें एक उपाय तो यही है कि आरक्षण का दायरा बढ़ाया जाए।
दूसरे उपायों में एक प्रमुख उपाय है फसल बीमा का दायरा बढ़ाना। इससे बीमा कंपनियों को ही फायदा हो रहा है। ऐसी बीमा योजनाओं से शायद ही किसानों को कोई लाभ मिल पाता है। असमानता को दूर करने में सब्सिडी बहुत उपयोगी नहीं है। इन उपायों से छोटी अवधि के लिए तो राहत मिलती है लेकिन समस्या का समाधान नहीं हो पाता।
ढांचागत समस्याओं को दूर किए बगैर प्रभावों को कम करने से काम नहीं चलने वाला है। बाजार द्वारा पैदा की गई असमानताओं से निपटने के लिए सरकारें अक्सर ऐसा करती हैं। पीड़ितों को हुए नुकसान की भरपाई सरकार मुआवजा के जरिए करने की कोशिश करती है। सरकार को उन परिस्थितियों को दूर करने की कोशिश करनी चाहिए जिनकी वजह से मुआवजे की मांग उठती है। मुआवजा देना तो सरकार की इस बात में नाकामी दिखाती है कि उसने मुआवजे की मांग की परिस्थितियों को दूर करने के उपाय नहीं किए।
दूसरी चीजों के अलावा बजट में मुक्तिवादी विचारों का इस्तेमाल करते हुए मुआवजे की बात की गई है। वह भी इसलिए कि सरकार ने उदारवादी आदर्शों को हासिल करने की समय सीमा बढ़ा दी। इसका असर प्रतिस्पर्धी अवसरों का माहौल तैयार करने की कोशिशों पर दिखेगा।