रोकने लायक नुकसान
चमकी बुखार से निपटने के लिए तत्काल गंभीर उपायों की जरूरत है
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यह कहा जाता है कि एक बच्चे की मौत से बड़ी कोई त्रासदी नहीं होती। क्योंकि इसके बाद स्थितियां पहले जैसे नहीं हो पातीं। अगर ऐसा है तो 153 बच्चों की मौत का क्या मतलब है। पिछले कुछ महीने में बिहार के मुजफ्फरपुर जिले में चमकी बुखार से आधिकारिक तौर पर इतने बच्चों की मौत हुई। खबरों के मुताबिक यह बीमारी इस जिले में 1995 से है। 2010 से 2014 के बीच इससे यहां 1,000 से अधिक बच्चों की मौत हुई है। इस बात की जानकारी से ही पूरे देश को इस समस्या के समाधान के लिए पूरी गंभीरता से काम करना चाहिए था। लेकिन साल-दर-साल मीडिया और सार्वजनिक जगत में वही स्थिति लगातार दिखती है। उन असहाय अभिभावकों की तस्वीर दिखती है जो अपने बेजान बच्चों को हाथ में लिए रहते हैं। वहीं दूसरी तरफ इस बीमारी की वजहों को लेकर तरह-तरह की अटकलबाजी होती है। राजनीतिक वर्ग और सत्ताधारी वर्ग, वह भी खास तौर पर राज्य के स्तर पर, यह नहीं बता पाता कि इसके समाधान के लिए क्या उपाय किए गए। इस बार भी यही स्थिति रही।
इसमें भी और बुरा यह है कि इस क्षेत्र में जाने वाले डाॅक्टर अक्सर कहते आए हैं कि इसे रोका जा सकता है लेकिन फिर भी उचित उपाय नहीं किए गए। बच्चों द्वारा लीची खाने को उनकी मौत की वजह बताया जाता है। लेकिन यह बात उन बच्चों के लिए सही है जो भयंकर कुपोषण के शिकार पहले से हैं। जो कुपोषण के शिकार नहीं हैं, उनके लीची खाने से कोई परेशानी नहीं होती। यह भी पता चला है कि इस बीमारी की गिरफ्त में आने के चार घंटों के अंदर ग्लूकोज देने से जान बचने की संभावना बढ़ जाती है। लेकिन राज्य सरकार ने न तो कुपोषण दूर करने में, न तो ग्लूकोज उपलब्ध कराने में और न ही प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों पर प्रशिक्षित डाॅक्टर उपलब्ध कराने में पिछले कुछ सालों में कोई तेजी दिखाई है। मुजफ्फरपुर के श्रीकृष्ण मेडिकल काॅलेज और हाॅस्पिटल में न तो विषाणु विज्ञान का लैब है और न ही यहां उचित संख्या में शिशु रोग विशेषज्ञ हैं। ऐसी स्थिति में स्वास्थ्य केंद्रों की दशा की कल्पना सहज ही की जा सकती है।
कई ऐसी बातें है जिनकी वजह से यह घटना हुई और ऐसी घटनाएं दूसरे राज्यों में होती हैं। उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले में 2017 में 70 मौतें हुई थीं। उस मामले में राज्य सरकार ने कहा था कि बच्चों की मौत संक्रमण की वजह से हुई। लेकिन बाद में पता चला कि आॅक्सिजन सिलिंडर पर्याप्त मात्रा में नहीं होने की वजह से बच्चे मरे। सिलिंडर आपूर्ति करने वाले को बकाये का भुगतान ही नहीं किया गया था। पूरे उत्तर प्रदेश में गोरखपुर जिला ऐसा है जहां सबसे अधिक जापानी बुखार के मामले सामने आते हैं।
अलग-अलग राज्यों में इस तरह की बीमारी से मरने वाले बच्चों में एक बात समान है कि मरीजों में पोषण का स्तर बहुत बुरा रहा है, वे गरीब परिवारों से रहे हैं और अस्पतालों की स्थिति बहुत खराब रही है। स्वास्थ्य क्षेत्र में काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में जीवन रक्षक दवाओं, उचित मेडिकल उपकरण और स्वास्थ्यकर्मियों की उपलब्धता सुनिश्चित कराने की मांग अक्सर उठाते रहते हैं। सालों से सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था की खराब होती स्थिति की बात उठती रही है। लेकिन इसके समाधान के लिए कुछ खास नहीं हो रहा है। बिहार सरकार को पूरे राज्य में और खास तौर पर इस जिले में पांच साल के कम के उन बच्चों की अधिक संख्या को कम करने पर ध्यान देना चाहिए जिनका पर्याप्त विकास नहीं हो रहा हो और कुपोषण की वजह से जिनका वजन कम हो।
केंद्र और राज्य के मंत्रियों के मुजफ्फरपुर अस्पताल में जाने की खबरें आईं। मरीजों के आहत परिजनों ने इन मंत्रियों को वापस लौट जाने की मांग की। पीड़ित परिवारों को यह आश्वासन दिया गया कि बच्चों के लिए अस्पताल में बेड बढाए जाएंगे और जांच के लिए जरूरी प्रयोगशाला भी बनाई जाएगी। सवाल यह उठता है कि सालों से यह काम क्यों नहीं किया गया। यह स्थिति सिर्फ मुजफ्फरपुर में ही नहीं है।
यह स्पष्ट है कि जब स्वास्थ्य सेवाओं की बात आती है तो गरीबों को यह लगता है कि उनकी लगातार अनदेखी की गई है। डाॅक्टरों के प्रति यह गुस्सा अधिक दिखता है क्योंकि लोग यह मानते हैं कि वे भी इस अन्यायपूर्ण व्यवस्था के हिस्सा हैं। मीडिया को सिर्फ डाॅक्टरों के खिलाफ होने वाली हिंसक घटनाओं की खबर देने के अलावा यह भी बताना चाहिए कि लोगों में अन्याय और गुस्से का किस तरह का भाव है। एक बच्चे की मौत भी शर्मनाक है। इसे रोका जा सकता है। इसके लिए पूरी गंभीरता के साथ तत्काल कदम उठाए जाने की जरूरत है।