‘हल्की’ महंगाई का बुलबुला
महंगाई का प्रबंधन सिर्फ कानूनी जिम्मेदारी नहीं बल्कि एक समग्र विकास लक्ष्य होना चाहिए
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2019 के आम चुनाव संभवतः भारत का पहला ऐसा चुनाव था जिसमें ‘महंगाई’ चुनावी मुद्दा नहीं रहा। पिछले पांच साल में भारत में महंगाई काबू में रही है। अप्रैल, 2014 से अप्रैल, 2018 के बीच उपभोक्ता मूल्य सूचकांक 6.65 फीसदी से घटकर 2.42 फीसदी पर पहुंच गया। इन आंकड़ों को वैधता इसलिए मिली हुई है, क्योंकि भारतीय रिजर्व बैंक ने महंगाई दर को 2 फीसदी से 6 फीसदी के दायरे में रखने का लक्ष्य रखा है।
महंगाई और आर्थिक विकास के संबंधों की व्याख्या में महंगाई की सीमा के बारे में भी पता चलता है। इस बात पर आम सहमति है कि एक मान्य स्तर से अधिक महंगाई से आर्थिक विकास प्रभावित होती है। लेकिन इस बात पर एक राय नहीं है कि कम महंगाई दर से विकास कैसे प्रभावित होती है। इस लिहाज से देखें तो अप्रैल, 2019 में 2.92 प्रतिशत का महंगाई दर पिछले पांच महीने में सबसे अधिक होने के बावजूद रिजर्व बैंक की दृष्टि में हल्की ही कही जाएगी। यही वजह है कि रिजर्व बैंक ने अपनी नीतिगत दरों को 6 फीसदी से घटाकर 5.75 फीसदी कर दिया। इससे निजी निवेश और उपभोग को बढ़ाने का लक्ष्य रखा गया है। ताकि जीडीपी की दर को मौजूदा 5.8 फीसदी के न्यूनतम स्तर से बढ़ाकर 2019-20 के 7 फीसदी के लक्ष्य तक ले जाया जा सके। इसमें दूसरे सामाजिक-आर्थिक लक्ष्यों पर उतना ध्यान नहीं दिया जा रहा है।
पांच दशक के आर्थिक साहित्य को देखें तो पता चलता है कि जीडीपी ही आर्थिक उपलब्धियों को मापने का एकमात्र मापक रह गया है। हालांकि, इसमें व्यक्ति की परिकल्पना इस पर भारी पड़ जाती है जिसमें मानवीय व्यवहार के कई तत्वों पर ध्यान दिया जाता है। महंगाई को काबू में रखकर जीडीपी को बढ़ाने का लक्ष्य, संभवतः इन्हीं सोचों का नतीजा हो। उदाहरण के तौर पर देखें तो 2014 में जब भारतीय जनता पार्टी चुनाव लड़ रही थी तो उस वक्त आसमान छूती कीमतें चुनावी मुद्दा थीं। भाजपा को मिली जीत में मध्य वर्ग की बड़ी भूमिका थी। यही वर्ग सबसे बड़ा उपभोक्ता वर्ग भी है। इसका परिणाम यह हुआ कि भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार उपभोक्ता मूल्य सूचकांक को कम रखने के लिए लगातार काम करती रही। भले ही उत्पादक मूल्यों पर कुछ भी असर पड़े। यह कृषि क्षेत्र में दिखता है। वहीं दूसरी तरफ किसानों से संबंधित मुद्दों से मध्य वर्ग अपना जुड़ाव नहीं महसूस करता।
इस संदर्भ में ‘हल्की’ महंगाई की अवधारणा उकसाने वाली है। खास तौर पर ऐसी स्थिति में जब महंगाई मापने वाले कई सूचकांक हैं। वहीं कई वस्तुओं और सेवाओं के मूल्यों का उतार-चढ़ाव अलग-अलग ढंग से होता है। ऐसे में कानून बनाकर महंगाई को नियंत्रित रखने की नीति वैसी राजनीति के अनुकूल है जो बांटने की सोच पर आधारित है।
सैद्धांतिक तौर पर उपभोक्ता मूल्य सूचकांक महंगाई का एक बेहतर संकेतक है जिसके आधार पर मौद्रिक नीतियां तय हों। क्योंकि इसमें खुदरा महंगाई को शामिल किया जाता है। लेकिन तकनीकी तौर पर देखें तो रिजर्व बैंक द्वारा महंगाई लक्षित पद्धति का उपभोक्ता मूल्य सूचकांक पर कम ही असर होता है। क्योंकि इसमें 46 फीसदी हिस्सेदारी खाने-पीने की चीजों की है। इन वस्तुओं की कीमतें काफी हद तक आपूर्ति पर निर्भर करती हैं। वैश्विक बाजार में कच्चे तेल की कीमतों की स्थिति और घरेलू स्तर पर फसलों के उत्पादन पर यह निर्भर करता है। इन पर रिजर्व बैंक का कोई नियंत्रण नहीं है। इन आर्थिक कारकों के बीच सरकार भी कई बार दखल देती है। इसमें कभी निर्यात तो कभी भंडारण संबंधित बंदिशें लगाई जाती हैं। विमुद्रीकरण और वस्तु एवं सेवा कर जैसे सरकार के कदमों ने भी बाजार में तरलता कम की और खरीदारों का आत्मविश्वास कमजोर किया।
उपभोक्ता मूल्यों का कम स्तर पर बने रहना संयोग की भी बात है, वह भी रिजर्व बैंक द्वारा निर्धारित दायरे में। लेकिन कोई जरूरी नहीं है कि यह उपभोक्ताओं के लिए नुकसानदेह न हो। पहली बात तो यह कि इसकी वजह खाद्य महंगाई है। थोक मूल्य सूचकांक में यह 33 महीने के उच्चतम स्तर 7.4 फीसदी पर पहुंच गया है। खाने के प्रमुख वस्तुओं की कीमतें बढ़ गई हैं। दालों की कीमतों में 14 फीसदी बढ़ोतरी हुई है तो अनाजों की कीमतो में 8.5 फीसदी। दूसरी बात यह कि मौसम विभाग दक्षिणी-पश्चिमी माॅनसून को लेकर बेहद आशान्वित नहीं है। इससे उत्पादन घट सकता है और महंगाई बढ़ सकती है। तीसरी बात यह कि वैश्विक राजनीति की जो स्थिति है, उसमें कच्चे तेल की कीमतें 60 डाॅलर प्रति बैरल के स्तर से अधिक भी हो सकती हैं।
कीमतों में इस बढ़ोतरी से किसानों को कितना फायदा होगा, यह इस बात पर निर्भर करेगा कि सरकार ने किस तरह से खाद्यान्न अर्थव्यवस्था का प्रबंधन किया है। क्या मौजूदा भाजपा नेतृत्व वाली सरकार अतिशयोक्तिपूर्ण समावेशी विकास के अपने लक्ष्य से परे हटकर विकास के मामले में समग्र रुख अपनाएगी? या फिर यह महंगाई दर को लक्षित करते हुए जीडीपी की अंधभक्ति की दौड़ में लगी रहेगी?