ट्रांसजेंडर विधेयक कहां असफल होता है?
ट्रांसजेंडर समुदाय के अधिकारों की सुरक्षा के लिए सकारात्मक कदम उठाने की आपात आवश्यकता है.
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हाल ही में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) ने भारत में ट्रांसजेंडर समुदाय का पहला राष्ट्रीय सर्वेक्षण करवाया और पाया कि इस समुदाय से आने वाले 92 फीसदी लोगों का आर्थिक बहिष्कार किया जाता है. ये बड़ा अजीब हाल है कि हम खुद को "आधुनिक" विश्व में रहने वाला मानते हैं और फिर भी हमारे बीच ऐसे लोगों का बड़ा समुदाय रहता है जिनका ढांचागत रूप से बहिष्कार किया जाता है और आजीविका के मौलिक अधिकार से उन्हें वंचित रखा जाता है. क्योंकि उन्हें दूसरी तरह की नौकरियों से बाहर रखा जाता है इसलिए उन्हें मजबूर होकर भीख मांगने और सेक्स वर्क जैसे काम करने पड़ते हैं. ट्रांसजेंडर समुदाय के द्वारा सबसे पहले जिस संकट का सामना किया जाता है वो है उन्हें लैंगिक नागरिकता न दिया जाना. आयोग के आंकड़ों के मुताबिक भारत में 99 फीसदी ट्रांसजेंडर समुदाय ने सामाजिक बहिष्कार झेला है. ट्रांसजेडर लोग सार्वजनिक जगहों पर जाकर समाज के लोगों से वैसा सम्मान नहीं पाते हैं जैसा स्त्री या पुरुष लिंग वाले इंसान पाते हैं क्योंकि ट्रांसजेंडरों के शरीर को बदनाम मौजूदगी मान लिया गया है. ट्रांसजेंडर समाज दरअसल हाशिये पर पड़े समुदायों में भी बहुत खास धरातल पर मौजूद है जो उसे यौन हिंसा और चिकित्सकीय उपेक्षा का आसान पीड़ित बनाता है. व्यापक तौर पर वे अपने परिवार से अलग हो चुके होते हैं जिसकी वजह से सामाजिक वैधता के सबसे प्राथमिक रूपों से वे दूर हो जाते हैं. एनएचआरसी के सर्वेक्षण के मुताबिक भारत में सिर्फ 2 फीसदी ट्रांसजेंडर ही अपने परिवार के साथ रहते हैं.
ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) विधेयक 2014इसमें सुधार का और ट्रांसजेंडर समुदाय को अवसर प्रदान करने का एक प्रयास था. यह विधेयक कई संशोधनों से गुजर चुका है जिस पर अगस्त को संसद में चर्चा हो रही थी. हालांकि जो अभी इसकी हालत है इसमें उन दो बेहद जरूरी सुझावों को शामिल नहीं किया गया है जो 2017 में इसके प्रावधानों की समीक्षा करने के लिए बनाई गई स्थाई समिति ने दिए थे. पहला सुझाव ये था कि नौकरियों में और शैक्षणिक संस्थानों में ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को आरक्षण दिया जाए. इस तरह का सकारात्मक कदम ये सुनिश्चित कर सकता है कि उनके आर्थिक बहिष्कार की समस्या दूर हो जाए.
दूसरा सुझाव था कि शादी करने और किसी के साथ जोड़ा बनाने के ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के अधिकारों को कानूनी पहचान दी जाए. ये करना हमारे जैसे देश में मुश्किल है जहां सिर्फ दो लिंगों को ही पहचाना जाता है. भारतीय लोगों ने अपनी सामाजिक-सांस्कृतिक हकीकत को परिभाषित करने का आधार लैंगिक युग्मक को ही जिद् के साथ बना रखा है. ट्रांसजेंडर समुदाय बहिष्कार की जिस राजनीति से पीड़ित है उसकी जड़ें उस आधिपत्य में है जिसे लैंगिक युग्मक ने परिभाषित किया है. इस विधेयक के पहले मसौदे से ट्रांसजेंडर समुदाय को सबसे बड़ी दिक्कत इस बात से थी कि इसमें एक ट्रांसजेंडर व्यक्ति को परिभाषित कैसे किया गया है कि : 'वो न तो आदमी है और न ही औरत.' ये परिभाषा न सिर्फ अपमानजनक है बल्कि उस अयोग्यता को दिखाती है जिसमें दो लिंगों के बाहर जाकर सोचा ही नहीं जा सका है. ये एक ट्रांसजेंडर व्यक्ति का विवरण नकारात्मक तरीके से करता है, किसी ऐसे के तौर पर जो एक स्थापित और स्वीकार्य लिंग का नहीं है. सौभाग्य से इस विधेयक का जो नया मसौदा है वो इसे संतोषजनक ढंग से दुरुस्त करता है और ट्रांसजेंडर को एक ऐसे व्यक्ति के तौर पर परिभाषित करता है "जिसका जेंडर उस जेंडर से मेल नहीं खाता है जो उसे जन्म के समय दिया गया है."
हमारे यहां पहले से ऐसे कानून मौजूद हैं जिनका इस्तेमाल मनमर्जी से ट्रांसजेंडर लोगों को सताने के लिए किया जाता है. भिक्षावृत्ति विरोधी कानून इन्हीं में से एक है. इसका सामना करने का एक तरीका संस्थागत आरक्षण हो सकता है ताकि उनकी आर्थिक सुरक्षा सुनिश्चित हो सके. "अप्राकृतिक यौन कृत्यों" को वर्जित करने वाली भारतीय दंड संहिता की धारा377 का इस्तेमाल भी नियमित रूप से ट्रांसजेंडर लोगों को निशाना बनाने में किया जाता है. जब तक धारा 377 एक दण्डनीय अपराध है जब तक ट्रांसजेंडर समुदाय के लोग गिरफ्तार करने का आसान शिकार रहेंगे. नतीजतन उन्हें एक तय कानूनी प्रावधान की जरूरत है जो उनके यौन अधिकार और पहचान की हिफाजत करे. इस संबंध में ये जरूरी है कि इस विधेयक में वो दूसरा सुझाव शामिल किया जाए जिसमें ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को शादी और जोड़े बनाने को कानूनी मान्यता देने की बात की गई है. इस विधेयक में बहुत विशेष शब्दों में ये भी नहीं परिभाषित किया गया है कि एक ट्रांसजेंडर व्यक्ति के खिलाफ भेदभाव किसे माना जाएगा. इसलिए हालांकि इस विधेयक को प्रगतिशील माना गया है,पर ये ट्रांसजेंडर लोगों को यौन नागरिकता देने की मूलभूत समस्या को संबोधित नहीं कर पाता है.
ये सुझाया गया है कि भारत में ट्रांसजेंडर समुदाय के अधिकारों की सुरक्षा के लिए जो भी कानून बनाया जाए उसमें तमिलनाडु के उदाहरण का अनुसरण अनिवार्यतः करना चाहिए. साल 2004 में तमिल नाडु में सिर्फ ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के लिए खासतौर से एक कल्याण बोर्ड गठित किया गया. सरकार ने उनको बुनियादी सकारात्मक उपाय दिए, जैसे रिआयती आवास और व्यावसायिक प्रशिक्षण केंद्र. इसके साथ ही उन्हें खास सरकारी अस्पतालों में सेक्स बदलने वाली सर्जरियां निशुल्क करवाने की सुविधा दी. अगस्त 2018 में केरल देश का दूसरा राज्य बन गया जहां पर सेक्स बदलवाने से जुड़ी सर्जरियों के लिए ट्रांसजेंडर लोगों को 2 लाख रुपये का सहयोग दिया जाता है. भारत में ट्रांसजेंडर समुदाय को अपनी सरकार से इसी तरह के समर्थन की आपात जरूरत है ताकि उन्हें पर्याप्त तौर पर स्वास्थ्य सेवाएं मिल सकें और संदेहास्पद चिकित्सकीय पेशेवरों के हाथों उन्हें जैसे शोषण और उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है वे उससे बच सकें.
कुल मिलाकर इस विधेयक में इस तरह के प्रावधान होने चाहिए कि ये रोज़मर्रा के सार्वजनिक जीवन वाली बनावट में ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को समेकित रूप से शामिल कर पाए. इसकी कानूनी कोशिशें ऐसी होनी चाहिए जो सार्वजनिक स्थलों, काम के क्षेत्रों और मानक घरेलू जगहों में ट्रांसजेंडर व्यक्तियों की मौजूदगी के सामान्यीकरण की प्रक्रिया को सहयोग करें.