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रोजगार में भारत के कदमों की विवेचना

श्रमिकों का अनौपचारिकरण करना आर्थिक चुनाव से ज्यादा राजनीतिक पैंतरेबाजी का मामला है.

 
 

The translations of EPW Editorials have been made possible by a generous grant from the H T Parekh Foundation, Mumbai. The translations of English-language Editorials into other languages spoken in India is an attempt to engage with a wider, more diverse audience. In case of any discrepancy in the translation, the English-language original will prevail.

 

हाल ही में मीडिया में रिपोर्ट किया गया कि सरकारी नौकरियों में 2.40 लाख पद खाली पड़े हैं. इससे राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) सरकार के नौकरियां पैदा करने के दावे को लेकर रोष और भी बढ़ गया है. सार्वजनिक क्षेत्र हमेशा से ही देश में औपचारिक क्षेत्र के रोजगार के मामले में एक बड़ा हिस्सेदार रहा है. ऐसे में कितनी नौकरियां खाली पड़ी हैं इसे लेकर ऐतिहासिक रूप से ये पता चलता है कि आखिर सरकार जितनी नौकरियां पैदा करने का दावा कर रही है उन नौकरियां की प्रकृति क्या है. पिछले एक दशक में रोजगार का जो संगठित क्षेत्र आधारित अनौपचारिकरण हुआ है वो भारत में विकास को लेकर काम करने वाले लोगों के लिए चिंता का कारण हो गया है. सरकार के खुद के सामने खाली पड़े इतने अधिक नियमित पदों से संकेत मिलता है कि उसकी नीति का जोर इस तरह श्रम या श्रमिकों के 'अनौपचारिकरणके पक्ष में है.

 

ऐसा प्रतीत होता है सरकार ये स्वीकार करने को तैयार नहीं कि भारत में श्रम के अनौपचारिकरण का जो मौजूदा चलन है वो नीति प्रेरित है. सरकार ने पारंपरिक रूप से उपयोग किए जाने वाले 'राष्‍ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण कार्यालय' (एनएसएसओ) के रोजगार-बेरोजगारी के आंकड़ों को हटाकरउसके स्थान पर उपयोग के लिए 'कर्मचारी भविष्य निधि संगठन' (ईपीएफओ) के विसंगत आंकड़ों को रखा है. ऐसा करके सरकार कुछ चिंताजनक सबूतों को छुपाने की कोशिश कर रही है. प्रधानमंत्री ने हाल ही में एक टिप्पणी की कि "जो युवक ...बाहर पकौड़ा बेच रहा है और दिन के 200रुपये कमा रहा है वो भी रोजगार निर्माण ही है." ये टिप्पणी उस राजनीतिक भाषा की ओर संकेत है जिसमें जानबूझकर'अनौपचारिक', 'स्व-रोजगारऔर 'उद्यमीजैसे जुमलों का इस्तेमाल बदल-बदल कर किया जाता है ताकि ये धारणा बना दी जाए कि नौकरियां ढूंढ रहे लोगों के लिए अनौपचारिकरण एक 'चुनावया पसंद है जहां वे खुद से ही सामाजिक सुरक्षा के अपने लाभ छोड़ रहे हैंछोटे आकार और श्रम के कम विभाजन वाले लचीलेपन की आर्थिक गतिविधियों से होने वाले ज्यादा संभावित ऊंचे मुनाफे के लिए. लेकिन (स्व) रोजगार जो महज गुजर-बसर वाला होफुटकरकम आय वालीकम उत्पादकता पैदा करने वाली आजीविकाओं में हो,जो अनौपचारिक रोजगार हो और खासकर असंगठित क्षेत्र में,उसे उद्यमशीलता तो नहीं ही कहेंगे. असंगठित क्षेत्र का अनौपचारिकरण करने के लिए उसमें निचले स्तर की शिक्षा और कुशलता का हवाला दिया जाता है, लेकिन वहीं जब संभावित रूप से ऊंचे स्तर की शिक्षा और कुशलता वाले संगठित क्षेत्र का संविदात्मक या आकस्मिक रोजगारों के जरिए अनौपचारिकरण बढ़ जाता है तो वो व्याकुल करने वाला है. उसमें भी खासकर तब जब ऐसा अनौपचारिकरण शिक्षा जैसे विशेषज्ञता वाले क्षेत्रों में हो रहा हो.

 

लैटिन अमेरिका और कैरिबियन जैसे विकासशील मुल्कों के साक्ष्य सुझाते हैं कि ऊंची कुशलता वाले कामगार खुद से ही अनौपचारिक रोजगार चुन सकते हैं जहां शिक्षा के मामले में नफा हो. भारत में भी यही बात है ऐसा लगता नहीं. 2017 में'विकासशील समाजों के अध्ययन केंद्र' (सीएसडीएस) द्वारा भारतीय युवाओं की आकांक्षाओंबेचैनियों और रवैये को लेकर एक अध्ययन करवाया गया था जिसमें पाया गया कि भारत में नौकरी तय करने में कमाई से भी बड़ा कारक उसका स्थायित्व है. हर पांच में से तीन युवाओं ने कहा कि उनकी तरजीह सरकारी नौकरियों को है और पिछले एक दशक में ये बदला नहीं है.

 

इसके पीछे वो पारंपरिक धारणा काम करती है कि सरकार ही देश में सबसे सुरक्षित रोजगार प्रदाता है और इसी वजह से सार्वजनिक क्षेत्र में काम करने की आकांक्षाएं बहुत ऊंची हैं. इस संदर्भ में हाल ही का मामला देखें जहां भारतीय रेल के90 हजार पदों की भर्ती के लिए 12.40 लाख उम्मीदवारों ने हिस्सा लिया. लेकिन ऐसा नहीं लगता कि इससे उन आर्थिक सिद्धांतों की पुष्टि होती है जो "शिक्षा जितनी अधिक या कम होआय उतनी ही ऊंची या कम होगी" इसे चलाते करते हैं. हम इससे इनकार नहीं कर सकते कि इस लगातार बढ़ती आकांक्षा की आग में घी डालने का काम लोगों और रैंट-सीकिंग (नए धन का निर्माण किए बगैर अपने धन को बढ़ाने की चाह) के गलत आवंटन के कुचक्र ने किया है. यही वो चीज है जिसने ऐतिहासिक रूप से भारत में सरकारी क्षेत्र के रोजगार को परिभाषित किया है. ठीक उसी समयये सरकारी नौकरियों के बाजार में प्रवेश करने की कीमत को निषेधात्मक सा बना देता है. नौकरियां चाहने वाले वो लोग जो इस व्यवस्था में घुस पाने में असफल रहते हैं उनके अनौपचारिक व्यवस्थाएं करने की संभावना ज्यादा हो जाती है. उनके ऐसे कदमों को "स्वैच्छिक" कहना गलत है. एक के बाद एक वेतन आयोगों के जरिए वेतन वृद्धि जैसी लोगों को खुश करने वाली नीतियों ने भर्ती करना खुद सरकार के लिए खर्चीला काम बना दिया है. खासतौर पर राज्य सरकारों के लिए क्योंकि अपने सीमित संसाधनों में उनके लिए केंद्र सरकार के वेतन पैकेज की बराबरी करना मुश्किल होता है. इससे स्थायी पद जो होते हैं वो खाली पड़े रहते हैं. इनके स्थान पर बढ़ती संख्या की संविदात्मक या आकस्मिक भर्तियां सरकारों की'कल्याणकारीछवि को बचाने में मदद कर सकती हैं.

 

नौकरियों का अनौपचारिकरण नव-उदारवाद का प्राकृतिक परिणाम है. इसमें भारत कोई अपवाद नहीं है. रोजगार नीतियां जो अनौपचारिकरण कर रही हैं उसे किसी एक सरकार से नहीं जोड़ा जा सकता. आमतौर पर ये नव-उदारवादी राज्यों के लिए उपयुक्त साबित होता है. ये निजी क्षेत्र के नेतृत्व वाली विकास रणनीति को सहयोग करता है. कारोबार के लिहाज से अनौपचारिक रोजगार (आकस्मिकरण) लागत कम कर सकता है जो प्रतिस्पर्धी रहने में शायद वृद्धिशील उत्पादकता से भी ज्यादा जरूरी है. लेकिन ठीक उसी समय ये नव-उदारवादियों के वित्तीय मितव्ययिता के सिद्धांत के साथ मेल खाता है. इस संदर्भ में और भी चिंता वाली बात तब होती है जब सरकारें अपनी देनदारियों से बचने के लिए इन ढांचागत बदलावों से नजरें फेर लेती हैं. वो संस्थान जो इस परिवर्तन को स्वीकार नहीं करते और उसका जिम्मा नहीं लेते वे सामाजिक ध्रुर्वीकरण के उस आक्रमण को कम करने में असफल रहेंगे जो नव-उदारवाद में अवश्यंभावी है.

 

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