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बिका हुआ

कोबरापोस्ट के स्टिंग ने भारतीय मीडिया के बारे में उसी बात की पुष्टि की है जिसकी जानकारी लोगों को पहले से है

 

The translations of EPW Editorials have been made possible by a generous grant from the H T Parekh Foundation, Mumbai. The translations of English-language Editorials into other languages spoken in India is an attempt to engage with a wider, more diverse audience. In case of any discrepancy in the translation, the English-language original will prevail.

 

भारत की मुख्यधारा की मीडिया संकट में है. लेकिन यह मानने को वह तैयार नहीं है. हाल ही में कोबरापोस्ट ने स्टिंग के जरिए जो चीजें सामने लाईं, उनके आधार पर आत्ममंथन करने के बजाए मीडिया घराने इन्हें नजरंदाज करने में ज्यादा इच्छुक दिखते हैं.

 

25 मई को खोजी वेब पोर्टल कोबरापोस्ट ने ‘आॅपरेशन 136’ के दूसरे हिस्से को जारी किया. 136 की संख्या का इस्तेमाल इसलिए किया गया क्योंकि यह प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में भारत की रैकिंग को दिखाता है. हालांकि, 200 देशों के इस इंडेक्स में अब भारत की रैंकिंग 138 हो गई है. कोबरापोस्ट ने 17 मीडिया समूहों पर एक स्टिंग आॅपरेशन किया. इसमें इसके रिपोर्टर ने श्रीमदभागवद गीता प्रचार समिति के आचार्य अटल के तौर पर मीडिया समूहों के मार्केटिंग और विज्ञापन के लोगों से मुलाकात की. आचार्य अटल ने पहले नरम हिंदुत्व वाले संदेश के प्रसार, फिर विपक्षी दलों के नेताओं के मजाक उड़ाने वाले संदेशों के प्रसार और फिर संघ परिवार के लोगों के कठोर हिंदुत्व वाले संदेशों के प्रसार के लिए काफी पैसे देने की पेशकश की. हालांकि, कोई समझौता नहीं हुआ लेकिन यह खुद में हैरान करने वाला है कि इस तरह की बातचीत में मीडिया समूह के लोग शामिल हो रहे थे.

 

आॅपरेशन 136 के पहले हिस्से पर किसी ने खास ध्यान नहीं दिया था. इस पर लोगों का तब ध्यान गया जब कोबरापोस्ट ने कहा कि 25 मई को वह इसका दूसरा हिस्सा जारी करने वाला है. सबसे अधिक प्रसार वाले हिंदी अखबार दैनिक जागरण ने अदालत जाकर इन टेपों के जारी होने के खिलाफ रोक का आदेश ले लिया. दैनिक जागरण से संबंधित टेप नहीं जारी हुए लेकिन बाकी के सारे टेप कोबरापोस्ट ने इंटरनेट पर जारी कर दिए. इसमें कुछ बड़े समूहों के प्रतिनिधियों और एक के मालिक और प्रबंध निदेशक को बात करते दिखाया गया है. इस बातचीत में योजना को अमल में लाने से लेकर भुगतान और नगद भुगतान की बात भी है.

 

इस बार भी कुछ अखबारों को छोड़कर मुख्यधारा की मीडिया ने स्टिंग आॅपरेशन को नजरंदाज ही किया. कुछ मीडिया समूहों ने अदालत से रोक लगवाकर खुद से संबंधित टेपों का प्रसार रोकने का काम किया. कुछ मीडिया समूहों ने रिपोर्टर के अतीत के बारे में नकारात्मक खबरें कीं और कुछ ने टेप की विश्वसनीयता पर सवाल उठाए. क्या स्टिंग करना नैतिक है और क्या कोबरपोस्ट ने टेप के संपादन में छेड़छाड़ किया है, इस पर चर्चा होनी चाहिए. लेकिन इस स्टिंग का मूल मकसद यह था कि कैसे राजनीतिक प्रोपगंडा के लिए बातचीत करने को मीडिया समूहों के वरिष्ठ लोग तैयार हैं. इस पर मजबूत विरोध नहीं होना यह साबित करता है कि मीडिया उसी की है जो सबसे अधिक बोली लगाए, चाहे वह राजनीतिक दल या कोई काॅरपोरेट समूह हो.

 

पिछले दो दशक से भारतीय मीडिया की विश्वसनीयता लगातार गिर रही है. 1970 के दशक के मध्य में आपातकाल के वक्त अधिकांश मीडिया समूहों ने जो समझौते किए उसके इतर असल गिरावट तब शुरू हुई जब देश में उदारीकरण की शुरुआत हुई. संपादकीय और विज्ञापन विभाग की दूरी खत्म होने लगी. खबरों की परिभाषा दूसरे उत्पादों की बिक्री से जुड़ गई. इससे यह हुआ कि पैसे के लिए खबर छापने की व्यवस्था संगठित हो गई. इसके बाद निजी समझौतों का दौर आया. इसके तहत काॅरपोरेट समूहों ने विज्ञापन और खबरों के एवज में मीडिया समूहों को अपनी कंपनी में हिस्सेदारी दी. दोनों को इससे फायदा हुआ लेकिन मीडिया की विश्वसनीयता लगातार कम हुई.

 

खबरों को तोड़-मरोड़कर पेश करने के लिए मीडिया के तैयार रहने का फायदा सिर्फ काॅरपोरेट घरानों ने नहीं बल्कि राजनीतिक दलों ने भी उठाया. सबसे पहले पेड न्यूज की शिकायत आंध्र प्रदेश यूनियन आॅफ वर्किंग जर्नलिस्ट ने 2004 लोकसभा चुनावों के दौरान भारतीय प्रेस परिषद के सामने उठाया. उस वक्त मीडिया समूह राजनीतिक दलों से अनुकूल कवरेज देने के लिए पैसे मांग रहे थे. 2009 के आम चुनावों में यह चीज महाराष्ट्र, गुजरात, हरियाणा और दूसरे राज्यों में दिखी. परिस्थितिजन्य साक्ष्यों से यह भी पता चला कि ये समझौते इसलिए किए जा रहे हैं ताकि खर्च चुनाव आयोग की सीमा के अंदर रहे. इसे देखते हुए चुनाव आयोग ने प्रेस परिषद को पेड न्यूज की जांच करने को कहा. परिषद ने 71 पन्नों की जो रिपोर्ट तैयार की, उसे सभी सदस्यों ने स्वीकार नहीं किया और इसे दफना दिया गया.

 

काॅरपोरेट समूहों और राजनीतिक दलों से पैसे लेने के मीडिया समूहों के अतीत को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि कोबरापोस्ट ने वही उजागर किया है, जिसे लोग पहले से जानते थे. कोबरापोस्ट के शब्दों में कहें तो इससे इस बात की पुष्टि होती है कि मीडिया पूरी तरह से बिक चुका है. इसे स्वीकार करने में मीडिया की अनिच्छा को देखते हुए यही लगता है कि अब वह लोकतंत्र में स्वतंत्र प्रहरी के तौर पर काम करने में सक्षम नहीं है बल्कि उसका व्यवहार पालतू जानवरों जैसा हो गया है.

Updated On : 12th Jun, 2018
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